घना अँधेरा हैं
सुनसान काली रात है
चारो और सन्नाटा है
दूर दूर तक कोई आवाज़ नहीं
सिर्फ मेरे साँसों की आहट है
मैं अकेला था घर पे
खौफ सा लगने लगा
लग रहा था कोई है
छुपा हुआ है कहिं
पर हकीकत में कोई नहीं है
ये राज़ मुझे पता था।
तो किससे डर रहा था ?
आखिर किससे वहशत हो रहा था
डर का तस्सवुर ऎसे हो गया
की सन्नाटा भी शोर मचा रहा था
कुछ पल मैंने गौर करना बंद किया
खामोश बैठ गया
खौफ को समझने लगा
सन्नाटे से दोस्ती होगया
अपने करीब होने लगा
बेवजह ही डरा जा रहा था
इल्म की रौशनी ने
बहार के अँधेरे को दूर किया
बैठे बैठे मैंने खुद से
ढेर सारी बातें की
अँधेरा आइना बनके
मुझे अपने आप से मिलाया
मैंने रात बितादी शब के साथ
मोहब्बत सा होगया था अँधेरे से
शब डूब गया , पर मैं जाग गया
No comments:
Post a Comment